संसार को निर्मल बनाने का पर्व है छठ
सात्विकता का पर्याय भी स्वच्छता है। स्वच्छ वातावरण हम देख पाते हैं। यह बाहर की स्थिति है। सात्विकता अंदर की स्थिति, लेकिन दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है। स्वच्छ परिवेश में स्वच्छ शरीर रहता है, स्वच्छ शरीर में स्वच्छ बुद्धि, ऐसे स्वच्छ वातावरण में ही मन में सात्विक विचार आते हैं और सात्विक तथा सकारात्मक व्यवहार होता है।
यूं तो किसी भी व्रत-त्योहार में स्वच्छतापूर्ण व्यवहार का खास स्थान है। लेकिन Chhath Puja में स्वच्छता का विशेष महत्व होता है। इसमें जल, जमीन और अघ्र्य की सामग्रियों से लेकर व्रती के शरीर की स्वच्छता भी आवश्यक होती है। इस व्रत के माध्यम से स्वच्छतापूर्ण जीवन का प्रशिक्षण भी होता है। Chhath माई तथा सूर्यदेव की नाराजगी का भय होता है। इसलिए सभी लोग उत्तम कोटि की स्वच्छता रखते हैं। शुचितापूर्ण व्यवहार करते हैं। यह बात दीगर है कि दो-तीन दिनों के सामूहिक श्रम से जिस घाट की साफ-सफाई करते हैं, व्रत समाप्ति के बाद वहीं गंदगी छोड़ आते हैं। घर-आंगन और अपने शरीर-मन की शुद्धि भी हम भूल जाते हैं।
यदि सूर्य पूजा के समय बरते गए स्वच्छ कर्म और व्यवहार का एक अंश भी समाज स्मरण रखे, तो वह स्वच्छता अभियान में भी सहयोगी बन सकता है। दरअसल, प्रधानमंत्री द्वारा घोषित स्वच्छता अभियान, एक सरकारी अभियान नहीं, बल्कि जन-अभियान है। भारतीय समाज के लिए कोई नया अभियान नहीं। हमारी संस्कृति और व्यवहार में ‘शौच’ (शुद्धि) का विशेष महत्व रहा है। सात्विक विचार और व्यवहार ही प्रशंसनीय व अनुकरणीय रहे हैं। व्यक्ति के स्वच्छतापूर्ण और सात्विक व्यवहार से ही पूरा समाज उन्नत होता है। एक अनुकरणीय समाज बनता है।
यूं तो हमारे दैनिक जीवन में भी शुचिता का विशेष महत्व रहा है। हाथ धोकर भोजन ग्रहण करना, पैर धोकर बिस्तर पर सोने जाना, बाहर से आने के उपरांत जूता बाहर छोड़ना, प्रतिदिन स्नान, प्रतिदिन सूर्य प्रणाम अनेकानेक ऐसे व्यवहार शुचितापूर्ण जीवन के प्रतीक हैं। लेकिन सूर्यदेव, जो पृथ्वी पर स्वच्छता लाने के सबसे बड़े दूत हैं, उनका व्रत (छठ पूजा) सचमुच स्वच्छता का जीवंत उदाहरण है।
व्रती स्त्री-पुरुष सूर्यदेव से ‘निर्मल काया’ की भी मांग करते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य अपनी किरणों से शरीर को निर्मल करता है, लेकिन हमारा शरीर जहां कहीं भी जाता है, वहां साफ-सफाई रहनी ही चाहिए। वरना शरीर बीमार होगा ही। व्रत करने के पूर्व जितनी आस्था दिखाई जाती है, उसके संपन्न होने के उपरांत भी उन आस्थाओं का अभ्यास करते रहना चाहिए। तभी व्रत फलित होता है।